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काशी के नाथ तीर्थंकर पार्श्वनाथ

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जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का अयोध्या में हुआ और चार तीर्थंकरों का जन्म काशी,वाराणसी में हुआ था | जैन धर्म के अंतिम और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर से लगभग ३०० वर्ष पूर्व अर्थात् आज से लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व तेइसवें तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ का जन्म बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ के तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बाद काशी (बनारस) के राजा काश्यप गोत्रीय अश्वसेन तथा रानी वामादेवी के घर पौषकृष्ण एकादशी के दिन अनिल योग में हुआ था। शास्त्रों के अनुसार तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ के शरीर की कांति धान के छोटे पौधे के समान हरे रंग की थी। मान्यता यह है कि पूर्व जन्मों की श्रृंखला में पा‌र्श्वनाथ पहले भव (जन्म) में ब्राह्मण पुत्र मरुभूति थे तथा उन्हीं के बडे़ भाई कमठ ने द्वेषवश उन पर पत्थर की शिला पटककर उनका प्राणांत कर दिया था। वही कमठ विभिन्न जन्मों में उनके साथ अपना वैर निकालता रहा। किन्तु समता स्वभावी तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ ने किसी जन्म में कभी उसका प्रतिकार नहीं किया और वे प्रत्येक विपत्तियां धैर्यपूर्वक सहन करते रहे। फलस्वरूप अंतिम भव में पा‌र्श्वनाथ का जन्म एक राजघराने में हो गया। किन्तु राजा के यहां सुलभ संसार की सभी भोग संपदाएं विरक्त पा‌र्श्वनाथ को आसक्त नहीं बना सकीं। तीस वर्ष की युवावस्था में वे प्रव्रजित (वैरागी) हो गए ।पार्श्व पुराण के अनुसार एक दिन वे देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यान में लीन बैठे थे। उसी समय कमठ (जो इस जन्म में शंबर नाम का असुर था) आकाश मार्ग से जा रहा था। उसने पा‌र्श्वनाथ को तपस्या करते देखा तो उसे पूर्व जन्मों का बैर स्मरण हो गया । उनसे पुनः बदला लेने के लिए वह उनपर महागर्जना तथा महावृष्टि करने लगा। इसी बीच एक वही सर्प का जोड़ा धरणेंद्र और पद्मावती के रूप में महायोगी पा‌र्श्वनाथ की रक्षा के लिए स्वत: आ गया,जिसको राजकुमार पार्श्व ने मरते समय महामंत्र सुनाया था । उन्होंने उनके मस्तक पर अपना फन फैलाकर कमठ के उपसर्ग (व्यवधान) से उनकी रक्षा की भावना और प्रयास किया । इन सभी घटनाओं से भी विरक्त पा‌र्श्वनाथ अपनी तपस्या से विमुख नहीं हुए और उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद उनका समवशरण (धर्मसभा) भारत के विभिन्न स्थलों पर लगा, जहां उन्होंने उपदेशों के माध्यम से सभी जीवों को आत्मकल्याण का मार्ग बतलाया। उन्होंने लगभग सत्तर वर्ष तक विहार किया उनके समवशरण में स्वयंभू आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, तथा 38000 दीक्षित आर्यिकायें थीं जिसमें प्रमुख आर्यिका का नाम सुलोचना था, एक लाख श्रावक थे और तीन लाख श्राविकाएं थीं,अंत में बिहार में स्थित सम्मेद शिखर पर प्रतिमा योग धारण कर विराजमान हो गए और श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन वहीं से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, उस समय इनकी मुक्ति के साथ साथ 3600 मुनि भी मोक्ष गए थे और उसके अनंतर तीन वर्ष के भीतर इनके 6200 शिष्य मुनिगण को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी
वर्तमान में यह जैन धर्मावलम्बियों का महान पवित्र तीर्थ क्षेत्र है, इसे पार्श्वनाथ हिल के नाम से भी ख्याति प्राप्त है,बारहवीं शती के हरियाणा के जैन कवि बुध श्रीधर ने अपभ्रंश भाषा में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन पर आधारित ‘पासणाहचरिउ’ लिखा है जिसकी प्रशस्ति में उन्होंने दिल्ली के हिन्दू सम्राट अनंगपाल के बारे में तथा दिल्ली के तत्कालीन इतिहास की जानकारी दी है अन्यथा मुग़ल सल्तनत के पूर्व की दिल्ली का इतिहास जानना बहुत मुश्किल हो गया था भारत में प्रसिद्ध नाथ संप्रदाय और नाग पूजा के इतिहास को भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ से जोड़कर देखा जाता है,तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ के मंदिर भारत में हजारों की संख्या में हैं। बिजौलिया के पार्श्वनाथ,सूरत का चिन्तामणि पार्श्वनाथ मंदिर,द्रोणगिरि के पार्श्वनाथ मंदिर,नैनागिरी सिद्ध क्षेत्र का पार्श्वनाथ मंदिर ,महुवा के विघ्नहर पार्श्वनाथ,दिल्ली चांदनी चौक का प्रसिद्ध लाल जैन मंदिर आदि अन्यान्य मंदिर बहुत ही ज्यादा प्रसिद्ध हैं, खजुराहो का पार्श्वनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध है वाराणसी ,काशी में भेलूपुर स्थित श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर उनका जन्म स्थान माना जाता है,तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ के अतिशय क्षेत्रों में अहिच्छत्र पार्श्वनाथ,वागोल पार्श्वनाथ ,नागफणी पार्श्वनाथ ,चंवलेश्वर पार्श्वनाथ ,अन्देश्वर पार्श्वनाथ ,अड़िन्दा पार्श्वनाथ ,बिजौलियां पार्श्वनाथ , अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ,मक्सी पार्श्वनाथ ,,महुवा-पार्श्वनाथ आदि अन्यान्य तीर्थ क्षेत्र बहुत प्रसिद्ध हैं,इनका चिन्ह सर्प है और उनकी पहचान मस्तक के ऊपर सर्प के फण से की जाती है,यद्यपि बिना फण वाली प्रतिमाएं भी प्राचीन काल से ही मिलती हैं तथापि प्रायः प्रतिमाएं फणयुक्त ही होती हैं । आचार्यों और विद्वानों ने उनकी स्तुति में हजारों स्तुतियाँ स्तोत्र लगभग हर भाषा में लिखे हैं, जैन भक्ति साहित्य का आधा से अधिक भाग तीर्थंकर पार्श्वनाथ को ही समर्पित हैं | वर्तमान में सुप्रसिद्ध भजन ‘तुमसे लागी लगन ,ले लो अपनी शरण,पारस प्यारा ….प्रत्येक भक्त के कंठ का हार बना हुआ है, जैन परंपरा में अधिकांश तंत्र मन्त्र का सम्बन्ध भी पार्श्वनाथ की उपासना से ही है, तीर्थकर पा‌र्श्वनाथ का जीवन में कष्टों में भी समता भाव धारण करने का एक महान उदाहरण है,आज हमारे जीवन में भी थोड़ी-सी अनुकूलता हो तो हम फूले नहीं समाते और जरा-सा कष्ट हो तो हाय-तौबा मच देते हैं। हमें तीर्थंकर पा‌र्श्वनाथ के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि कष्ट और विपत्ति में भी हम कैसे दुखों से निस्पृह बने रह सकते हैं। उनसे हम सुख-दुख में समता की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं और अपना जीवन सुखी बना सकते हैं।

प्रो. अनेकांत कुमार जैन
(राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित )
आचार्य – जैन दर्शन विभाग ,
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय ,
नई दिल्ली -110016

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